From:-Vinod
अक्सर सोचा करते है, तुम्हे
सुबह-शाम …. सोते – जागते
डायरी को शब्दों से भरते
कभी….किसी किताब के
पन्नो को पलटते – पलटते
उड़ती नीली-पीली पतंगों के
धागों से उलझते हो, सोच में
सोचते है …क्यों सोचते है सोचते
जंगली कंटीले बेंगनी फूलो से
अक्सर चुभ जाते हो, सोच में
कई बार सोचा….दूर रखे तुम्हे
इस बे मतलबी सोच के दायरों
से गर्म हथयलियो पर बर्फ पिघले
ऐसा कुछ महसूस कर रुक जाते
टिम टिमाते दियो को इकटक देखे
तो ना जाने क्यों विनोद के आंसू बन छलक जाते
सोचते है….क्या तुम भी सोचेते हो
जैसे विनोद सोचते है, हर घडी तुम्हे ……